माँ कैसी होती है...
बचपन में हम नाटक करते
तो मार मार के खिलाती थी,,
फिर खुद ही कहती मेरा राजा बेटा है
और फिर हसाती थी,,
कहीं खेलते खेलते ज़रा सी
खरोच आ जाती थी,,
तो माँ हल्दी तेल लेकर
भागी दौड़ी आती थी,,
आज भी मुझे उदास देखकर
वो आँखे भर के रोती है,,
वो माँ ही है, जो ऐसी होती है,,,
जो परिवार की खुशियों में
निवछावर कर दे जीवन अपना,
सबके सपने पूरा करते-करते
वो भूले खुद अपना सपना,,
जो घर में काम करने वाली
मशीन समझी जाती है..
वो माँ ही है जो सबको
खुशियाँ देना चाहती है..
कब कौन उसको क्या बोल देता है..
कब कौन अपने तीखे मुह खोल देता है..
जो इन सब बातों की फिकर
नहीं करती है..
बस हर पल हर दिन हम सब
के लिए जीती मरती है..
जो खुद को हर साँचे में ढाल लेती है..
वो माँ ही है, जो ऐसी होती है...
घर में सुई जूता बेल्ट और टाई..
सब चीजें हमने माँ से मंगवाई..
माँ है तो सब कुछ आशानी से मिल जाता है..
गर कुछ ना मिले तो हर कोई माँ को चिल्लाता है..
फिर भी वो खुद की खुशियों को
सब में बाँट देती है..
वो माँ ही है, जो ऐसी होती है...
खुद होगा बुखार तो चुपके से रोयेगी
पर किसी को ना बोलेगी..
गर किसी सदस्य को कुछ हुआ तो
डॉक्टर के लिए दरवाजा सबसे पहले खोलेगी..
माँ ही है जो प्यार के बीज
सबके लिए बोती है,,,
वो माँ ही है, जो ऐसी होती है,,,,
जीवन के हर पड़ाव पे
ग़मों का पहाड़ खुद ही ढोती है,,,
वो माँ ही है, जो ऐसी होती है,,,
कविता लेखक:- राज उपाध्याय