गौर से देखो इसे और प्यार से निहार लो
आराम से बैठो यहाँ पल दो पल गुजार लो
सुध जरा ले लो यहाँ पर एक हरे से घाव की
कि यह जमीं है गाँव की, हाँ ये जमीं है गाँव की..
कुल कुनबा और कुटुम का अर्थ बेमानी हुआ
ताऊ चाचा खो गये सब, खो गई बड़की बुआ
गाँव भर रिश्तों की कैसी डोर में ही था बँधा
जातियों का भेद रिश्तों की तराजू था सधा
याद है अब तक धीमरों के कुएं की छाँव की
कि यह जमीं है गाँव की, हाँ ये जमीं है गाँव की..
आपसी संबंधों के चौंतरों पर बैठ कर
थे सभी चौडे बहुत ही रौब से कुछ ऐंठ कर
था नही पैसा बहुत और न अधिक सामान था
पर मेरे उस गाँव में सबका बहुत सम्मान था
माँग कर कपडे बने बारातियों के ताव की..
कि यह जमीं है गाँव की, हाँ ये जमीं है गाँव की..
गाँव का जब से शहर में आना जा हो गया
गाँव का हर आदमी अब खाना खाना हो गया
सैंकडों बीघे का मालिक गाँव का अपना ही था
तनख़्वाह के चक्कर मे रामू शहर में है खो गया
बात करनी है मुझे उस दौर के ठहराव की..
कि यह जमीं है गाँव की, हाँ ये जमीं है गाँव की...
ब्लॉगर>> राज उपाध्याय